शनिवार, 31 जनवरी 2009

बसंत "के बाद



         बसंत के बाद ,बहारे लौट रही है ,        फ़िर शुष्क हो रही टहनीया |

              पत्ते पतझड़ से बोल रही है ,आ गए टेसू के दिन क्यो हमसे रूठ रही  है|


            रंग घोलती थी कभी फिजाये ख़ुद ,       अब रंग ख़ुद को खोज रही है|

                 बहुत कठिन है, जीवन की हर पाती ,न चाह कर भी शाख से टूट रही है।

बसंत के बाद बहारे लौट रही है ,फ़िर शुष्क हो रही टहानिया ,


                                   पत्ते पतझड़ से बोल रही है ..................................................?

1 टिप्पणी:

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

बाद की पंक्तियों का फॉण्ट छोटा कर दीजिए!
क्या इस कविता के साथ
टेसू का फ़ोटो छापना पसंद करेंगी?