बसंत के बाद ,बहारे लौट रही है , फ़िर शुष्क हो रही टहनीया |
पत्ते पतझड़ से बोल रही है ,आ गए टेसू के दिन क्यो हमसे रूठ रही है|
रंग घोलती थी कभी फिजाये ख़ुद , अब रंग ख़ुद को खोज रही है|
बहुत कठिन है, जीवन की हर पाती ,न चाह कर भी शाख से टूट रही है।
बसंत के बाद बहारे लौट रही है ,फ़िर शुष्क हो रही टहानिया ,
पत्ते पतझड़ से बोल रही है ..................................................?
1 टिप्पणी:
बाद की पंक्तियों का फॉण्ट छोटा कर दीजिए!
क्या इस कविता के साथ
टेसू का फ़ोटो छापना पसंद करेंगी?
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