शुक्रवार, 13 मार्च 2009

ये लम्हा



"गुजर ना जाए कहीं ये लम्हा ?बीत न जाए ये पल ?

झिलमिलाते किरणों के सिरहाने पर एक पाती छोड़ आऊं|

पढ़ ले 'वो 'तो रौशनी मांग लाऊं|

जो वर्षो तक साथ रहे मेरे,वो सानिध्य मांग लाऊं|

और क्या कहूँ ?

बस दिव्य "ओज "हो तुम,और मैं "ओंस "की एक बूंद|

कुछ देर ही सहीं 'आँचल 'दमका आऊं|

एक एहसास बन जाऊं|

जो भुला ना जाऊं ?

ऐसी "याद "जीवंत कहलाऊं |"