
"गुजर ना जाए कहीं ये लम्हा ?बीत न जाए ये पल ?
झिलमिलाते किरणों के सिरहाने पर एक पाती छोड़ आऊं|
पढ़ ले 'वो 'तो रौशनी मांग लाऊं|
जो वर्षो तक साथ रहे मेरे,वो सानिध्य मांग लाऊं|
और क्या कहूँ ?
बस दिव्य "ओज "हो तुम,और मैं "ओंस "की एक बूंद|
कुछ देर ही सहीं 'आँचल 'दमका आऊं|
एक एहसास बन जाऊं|
जो भुला ना जाऊं ?
ऐसी "याद "जीवंत कहलाऊं |"
1 टिप्पणी:
सुंदर अभिलाषा!
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